भजन का लक्षण विनम्रता
वस्तु का एक स्वाभाविक गुण होता है । जैसे अग्नि का गुण है जलाना । किसी को यह पता हो या न हो लेकिन अग्नि जलाती ही है ।ऐसे ही अन्य अन्य वस्तुओं के स्वाभाविक गुण होते हैं । अग्नि को बलभ में परिवर्तित कर दिया तो बल्ब को हाथ लगाने से शायद वह न जलाए, लेकिन अग्नि का मूल गुण जलाना ही है ।ऐसे ही जो हम वैष्णव लोग् भजन भक्ति करते हैं उसका मूल गुण हैं विनम्रता दीनता होना ।अपने आप को कभी भी श्रेष्ठ ना मानना अपने आप को सबसे छोटा तृण समान मानना । शिक्षा अष्टक में तो कहा गया हैअमानिना मानदेन् ।इसके दो अर्थ है । एक तो स्वयं अमानी होकर दूसरे को मान दो । स्वयं अमानी हो जाओ स्वयं विनम्र हो जाओ ।
दूसरा इसका अर्थ है जो मान योग्य नहीं भी है उसको भी मान दो । अर्थात उसमें भी अपने सियाराम मय सब जग जानी मान कर उसका भी अपमान मत करो ।यह भक्ति का स्वाभाविक लक्षण है । यदि भक्ति को नाटक से ढका नहीं गया है भक्ति को मनोरंजन से ढका नहीं गया है भक्ति को प्रतिष्ठा से ढका नहीं गया है तो भक्ति का यह गुण सहज ही प्रकट हो जाता है और यदि नहीं हो रहा है तो सच मानिए हमने इस भक्ति के आचरण को किसी भी अन्य इच्छा से आवृत कर रखा है ।इसलिए भक्ति का प्रथम गुण विनम्रता हम में नहीं आ रहा है । विनम्रता आते ही राग और द्वेष स्वत ही समाप्त हो जाते हैं यह सिद्धांत है ।जब आप अपने आप को सबसे छोटा समझेंगे तो ना तो आपका किसी के प्रति द्वेष होगा और ना आपका किसी के प्रति राग होगा ।द्वेष होना जितना खतरनाक है राग होना उससे भी अधिक खतरनाक है । अतः हम अपने आप को चेक करते रहें । समय-समय पर जब अहंकार की बात आए मन में, तो झटका दें अपने आप को और कोशिश करें कि विनम्रता को धारण करें ।समस्त वैष्णव वृंद को दासाभास का प्रणाम ।
।। जय श्री राधे ।।
।। जय निताई ।। लेखक दासाभास डॉ गिरिराज
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