"Superior or Junior" "अपने से श्रेष्ठ या कनिष्ठ"
अपने से श्रेष्ठ या कनिष्ठ
शास्त्र म् कहा गया है कि सदा ही 1। अपने से ऊँचे स्तर के वैष्णव का संग करो । परिणाम स्वरूप आप भी ऊँचे की तरफ बढ़ोगे 2। जो स्निग्ध हो । उसका संग करो । वो चिड़चिड़ायेगा नही दासाभास की तरह, अपितु प्रेम से आपको समझायेगा 3 । सजातीय अर्थात जो उपासना, जो सम्प्रदाय, जिस भाव के आप उपासक हो, वह भी उसी भाव आदि का हो, अन्यथा विवाद हो सकता है| ये तो है भजन की बात । ऐसा करने से भजन बढ़ेगा ही । लेकिन लौकिक विषय को बढ़ाना नही, अपितु छोड़ना है । निकलना है इस जाल से ।इसलिए लौकिक जगत में सदा ही अपने से छोटे स्तर के लोगों के साथ रहो ।

इससे सदा संतुष्टि बनी रहेगी ।यदि अपने से बड़े लोगों के साथ उठेंगे बैठेंगे तो उनकी समृद्धि, उनके स्तर, उनकी विलासिता को देखकर हमारे मन में भी वैसा बनने की इच्छा जागृत होगी ।और कहीं ना कहीं हम भी वैसा बनने का प्रयास करेंगे । यदि वैसा बन गए तो इस जंजाल में फंसते जाएंगे और भजन छूटता जाएगा ।यदि नहीं बन पाए तो मन में खिन्नता रहेगी और एन केन प्रकारेण वैसा बनने का संकल्प मन में रहेगा जो मन को चंचल करेगा ।अतः श्रेष्ठ भजन आनंदी का संग करने से भजन बढ़ेगा और श्रेष्ठ लॉकिंक सुख सुविधा वाले का संग करने से लौकिक सुख सुविधा बढ़ेगी ।लेकिन एक वैष्णव यह जानता है कि लौकिक सुख सुविधाओं में आनंद नहीं है ।क्लेश ही क्लेश है । यह छोड़नी ही है । और इनको छोड़ने पर जोर नहीं देते हुए, भजन को पकड़ने पर जोर देना है ।जैसे-जैसे भजन बढ़ता जाएगा यह चीजें छूटती जाएगी । अतः एक वैष्णव के लिए संग श्रेष्ठ वैष्णव का और लौकिक संग अपने से छोटे स्तर वाले व्यक्ति का ।इससे मन भागेगा नहीं और संतुष्ट रहेगा ।परिणाम स्वरुप भजन में लगे रहेंगे हम और आप ।
समस्त वैष्णव वृंद को दासाभास का प्रणाम ।
।। जय श्री राधे ।।
।। जय निताई ।। लेखक दासाभास डॉ गिरिराज
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