भजन क्या है
कलियुग में वैसे तो श्रीहरिनाम जप एवं श्री हरिनाम संकीर्तन ही भजन का श्रेष्ठतम स्वरुप है, क्योंकि नाम और नामी अभिन्न है । नाम ही साधन है और नाम ही साध्य है ।सरल है । सहज है । बहुत अधिक विधि निषेध नहीं है । लेकिन फिर भी अन्य जो भी क्रियाएं हैं जिनसे श्री कृष्ण का संबंध है । श्रीकृष्ण को सुख मिलता है । श्रीकृष्ण की स्मृति बनी रहती है । वह सारी क्रियाएं भजन के अंतर्गत ही आती है ।वह भी भजन की विधाएं हैं । भजन है । साक्षात भजन है । कोई छोटा भजन । कोई बड़ा भजन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है ।
अपनी अपनी निष्ठा और श्रद्धा के अनुसार भजन के किसी भी अंग में लगने पर भगवत्प्रेम भक्ति प्राप्त होती ही है ।मेरे पूज्य पिता वृजविभूति श्री श्यामदास जी ने अपने जीवन भर में लगभग 150 ग्रंथ लिखे, संपादन किया, अनुवाद किया ।उनके लिए यही भजन था । वह इसे भजन के अंग के रूप में ही करते थे ।हमारे मित्र पुनीत जी संत वैष्णव विद्वानों को निमंत्रित करते हैं । अपने घर में वास देते हैं, उनके भोजन शयन की व्यवस्था करते हैं ।उनके द्वारा नाम महिमा सत्संग आदि का प्रचार करते हैं उनके लिए यही भजन है ।कोई वैष्णव सेवा करता है । कोई निधिवन में बुहारी लगाता है । कोई प्रतिदिन मंगला करता है कोई पोशाक बनाता है ।आदि आदि सब भजन ही हैं ।भजन में निरंतरता बनी रहे तो भजन शीघ्र ही अपने उद्देश्य श्रीकृष्ण सेवा को श्रीप्रिया लाल जी के सुख को प्रदान करता है ।अतः भजन की जो भी विधा हमें अच्छी लगती है उस में लगे रहे । अपने आप वह विधा हमें सीढ़ियां चढ़ाती हुई श्रेष्ठ की ओर ले जाएगी ।
समस्त वैष्णव वृंद को दासाभास का प्रणाम ।
।। जय श्री राधे ।।
।। जय निताई ।। लेखक दासाभास डॉ गिरिराज
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