यंत्रवत करते रहो
मन की चंचलता या भजन में मन ना लगना यह अनादि काल से साधकों के लिए समस्या रही है. वह चाहे प्रारंभिक स्तर का साधक हो या ऋषि मुनि हो मन की चंचलता को दूर करने में ही सभी लगे रहते हैं और मन की चंचलता सहज में दूर होती भी नहीं है क्योंकि चंचलता मन का स्वरूपभूत गुण है, लक्षण है ।
जैसे अग्नि का लक्षण है जलाना, धूप का लक्षण है गर्माहट देना । उसी प्रकार मन का लक्षण है चंचलता प्रदान करना ।हम जैसे प्राथमिक साधकों को चाहिए कि प्रारंभ में हम एक निश्चित अनुशासन में रहते हुए संख्या का या समय का या घंटों का नियम लेते हुए यंत्रवत ही सही भजन में लगे रहे ।करते-करते धीरे-धीरे हमारा पहले चित्त, मन शुद्ध होगा । मन शुद्ध होने से मन की चंचलता कम होगी । मन की चंचलता कम होने से हमारा भजन में समुचित प्रवेश हो जाएगा ।अतः मन नहीं लगता इसलिए हम साधन न करें यह कदापि उचित नहीं है । प्रारंभ में तो मन लगे या ना लगे साधन में हम अनुशासित होकर यदि लगेंगे तो एक दिन ऐसा भी आएगा कि मन लगने लगेगा और
हम होंगे कामयाब
समस्त वैष्णव वृंद को दासाभास का प्रणाम ।
।। जय श्री राधे ।।
।। जय निताई ।। लेखक दासाभास डॉ गिरिराज
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